जीने की चाहत

क्यूँ नहीं अपने से ही लड़ पाता इंसां
क्यूँ अपने से ही हार जाता है इंसां
ज़िंदगी तो नियामत है
ये देन है खुदा की
क्यूँ उसे नहीं जी पाता इंसां

दर्द गर जीने में है
दर्द तो मरने में भी है
फिर क्यूँ नहीं ये दर्द सह पता इंसां

हाथ तो बहुत है हौंसले देने के लिए
क्यूँ फिर अपना ही हाथ नहीं बढ़ा पाता इंसां
संघर्ष है तो करो उसे
क्यूँ उस संघर्ष से घबराता है इंसां

अपने लिए नहीं तो
दूसरो  की खुशी के  लिए ही
क्यूँ नहीं कुछ कर जाता इंसां

किसी की दुआ बनकर
किसी की आँखों का सपना बन
क्यूँ नहीं किसी की मुस्कराहटों में रह पता इंसां

मौत तो कोई हल नहीं किसी भी समस्या का
क्यूँ नहीं इस समस्या का समाधान निकाल पाता इंसां

मकसद तो बहुत है जीने के लिए
क्यूँ नहीं एक मकसद बना पाता इंसां

क्यूँ यूं, ज़िंदगी से भागकर
कहाँ जाता है  इंसां
क्यूँ नहीं अपने से ही लड़ पाता इंसां

शालिनी गुप्ता 

No comments:

Post a Comment